मीरा बाई का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय
नाम: मीरा बाई
जन्म: 1498 ई. (संभावित)
जन्म स्थान: कुड़की, पाली जिला, राजस्थान
माता-पिता: रतनसिंह राठौड़ (पिता), वीर कुंवर (माता)
पति: भोजराज (मेवाड़ के राजकुमार)
मृत्यु: 1547 ई. (संभावित)
मृत्यु स्थान: द्वारका, गुजरात
मीरा बाई का जीवन परिचय
मीरा बाई भक्तिकाल की महान संत और कृष्णभक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री थीं। उनका जन्म राजस्थान के पाली जिले के कुड़की गाँव में 1498 ई. के आसपास एक राजपूत राजघराने में हुआ था। उनके पिता रतनसिंह राठौड़ एक प्रतिष्ठित योद्धा थे। मीरा बाई बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन थीं। कहा जाता है कि मात्र चार वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक साधु से भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति प्राप्त की और उसे ही अपना पति मान लिया।
मीरा बाई का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से हुआ, जो महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ वर्षों बाद ही भोजराज का निधन हो गया, जिससे मीरा बाई का जीवन और अधिक कृष्णमय हो गया। ससुराल में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने भक्ति मार्ग से विचलित नहीं हुईं।
उनका परिवार उनकी भक्ति को स्वीकार नहीं करता था, लेकिन मीरा किसी की परवाह किए बिना कृष्ण प्रेम में लीन रहीं। अंततः उन्होंने राजमहल त्याग दिया और तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं। वे वृंदावन, मथुरा और द्वारका जैसे स्थानों पर रहीं और अपने भक्ति गीतों के माध्यम से कृष्ण की आराधना करती रहीं। माना जाता है कि 1547 ई. में द्वारका में उन्होंने अपने भौतिक शरीर का त्याग कर दिया और श्रीकृष्ण में लीन हो गईं।
मीरा बाई की रचनाएँ
मीरा बाई की रचनाएँ कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत हैं। उनके पदों में प्रेम, समर्पण और त्याग का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। उन्होंने कृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को व्यक्त करने के लिए सरल, सुबोध और भावनात्मक भाषा का प्रयोग किया है।
मुख्य रचनाएँ:
- मीरा के पद – यह उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसमें उनके भक्ति भावनाओं से ओत-प्रोत पद संकलित हैं।
- राग गोविंद – इस ग्रंथ में मीरा के भक्ति रस से परिपूर्ण पद शामिल हैं।
- नरसी जी का मायरा – इसमें मीरा ने नरसी मेहता के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया है।
- गीत गोविंद टीका – इसमें जयदेव कृत गीत गोविंद पर मीरा की व्याख्या मिलती है।
मीरा बाई की भाषा और शैली
मीरा बाई की भाषा मुख्य रूप से राजस्थानी, ब्रजभाषा और गुजराती से प्रभावित थी। उनके पदों में लोकभाषा की सादगी और भक्ति की गहराई मिलती है।
भाषा की विशेषताएँ:
- राजस्थानी और ब्रज भाषा का मिश्रण – उनकी रचनाओं में स्थानीय भाषा की सहजता और मिठास देखने को मिलती है।
- सीधी और सरल भाषा – मीरा के पद भावनाओं को सीधे हृदय तक पहुँचाने की क्षमता रखते हैं।
- लोकगीतों की शैली – उनकी कविता में लोकगीतों की झलक मिलती है, जिससे वे जनमानस में लोकप्रिय रहीं।
- संगीतात्मकता – मीरा बाई के पदों में गेयता होती है, जो संगीत प्रेमियों को भी आकर्षित करती है।
मीरा बाई के प्रसिद्ध दोहे और पद
प्रसिद्ध दोहे
-
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
(यह पद मीरा बाई की भक्ति भावना को दर्शाता है, जहाँ वे श्रीकृष्ण को अपना परम धन मानती हैं।) -
म्हारो पलना झूले नंदलाल।
(इस पद में मीरा बाई श्रीकृष्ण को बाल रूप में दर्शाती हैं और उनकी मातृभक्ति झलकती है।) -
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
(इसमें मीरा बाई अपने अनन्य प्रेम और समर्पण को प्रकट करती हैं।) -
जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किये दुख होय।
(इसमें मीरा बाई प्रेम की पीड़ा को व्यक्त करती हैं।)
मीरा बाई के प्रसिद्ध दोहे और उनके हिंदी अनुवाद
1. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
अनुवाद:
मेरा तो केवल गिरधर (श्रीकृष्ण) ही स्वामी है, मैं किसी और को नहीं मानती। इस दोहे में मीरा का संपूर्ण समर्पण और अनन्य भक्ति भाव प्रकट होता है।
2. जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किए दुख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय॥
अनुवाद:
अगर मुझे पहले ही पता होता कि प्रेम करने से इतना दुख मिलेगा, तो मैं पूरे नगर में ढिंढोरा पीटकर कहती कि कोई भी प्रेम न करे। यह दोहा प्रेम की पीड़ा को दर्शाता है।
3. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
अनुवाद:
मैंने श्रीराम (या श्रीकृष्ण) रूपी अमूल्य रत्न प्राप्त कर लिया है। यह सांसारिक धन से अधिक कीमती है और इसे प्राप्त कर मैं धन्य हो गई हूँ।
4. मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनाशी।
अनुवाद:
मीरा के प्रभु गिरधर नागर (श्रीकृष्ण) हैं, जो सहज रूप से मिलते हैं और अविनाशी (अमर) हैं। इस दोहे में ईश्वर की सर्वव्यापकता और कृपा का वर्णन किया गया है।
5. मोहे सतगुरु मिलें, सब दुख दूर किए।
अनुवाद:
मुझे सच्चे गुरु मिल गए हैं, जिन्होंने मेरे सारे दुख दूर कर दिए हैं। यह दोहा सच्चे गुरु के महत्व को दर्शाता है।
6. दरसन दीजो घनश्याम।
मो पे कृपा करो, कर जोड़ूं बारंबार॥
अनुवाद:
हे कृष्ण, मुझे अपना दर्शन दीजिए। मैं हाथ जोड़कर आपसे बार-बार प्रार्थना करती हूँ कि मुझ पर कृपा करें।
7. मन रे, परसौ मिलण की आस।
अनुवाद:
हे मन, तू परमात्मा से मिलने की आशा रख, क्योंकि वही जीवन का परम लक्ष्य है।
8. म्हारो रंगीलो साँवरियो, प्रीतम प्यारा लागे।
अनुवाद:
मेरा सांवला रंग वाला प्रियतम (श्रीकृष्ण) मुझे बहुत प्यारा लगता है। यह दोहा मीरा की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति और प्रेम को दर्शाता है।
9. कंकर पाथर जो बिछाए, सो भी पिर पर आए।
अनुवाद:
जो भी ईश्वर की राह में काँटों और पत्थरों की कठिनाइयाँ डालता है, उसे भी अंततः पीड़ा सहनी ही पड़ती है।
10. राणा जी! साँची कहूँ, मोहि कंवल न भावै।
अनुवाद:
हे राजा, मैं सच कह रही हूँ कि मुझे महल का ऐश्वर्य अच्छा नहीं लगता, बल्कि मुझे कृष्ण की भक्ति ही प्रिय है।
मीरा बाई की भक्ति और दर्शन
कृष्ण भक्ति
मीरा बाई की भक्ति माधुर्य भाव से परिपूर्ण थी। वे श्रीकृष्ण को अपना आराध्य, प्रियतम और सर्वस्व मानती थीं। उनकी भक्ति में प्रेम, समर्पण और त्याग का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
संपूर्ण समर्पण
मीरा बाई ने सांसारिक बंधनों को त्यागकर पूरी तरह से श्रीकृष्ण को अपना लिया। उनका जीवन संदेश देता है कि भक्ति मार्ग में आने वाली कठिनाइयों के बावजूद सच्चा प्रेम कभी विचलित नहीं होता।
नारी सशक्तिकरण की प्रतीक
मीरा बाई उस समय की महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत रहीं। उन्होंने समाज के बंधनों को तोड़ते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई और कृष्ण की भक्ति को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया।
मीरा बाई की लोकप्रियता और प्रभाव
- भक्ति आंदोलन में योगदान – मीरा बाई ने भक्तिकाल के दौरान कृष्ण भक्ति शाखा को एक नया आयाम दिया।
- लोकप्रियता – उनकी रचनाएँ आज भी भजन और कीर्तन के रूप में गाई जाती हैं।
- साहित्य पर प्रभाव – उनके पदों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और भक्तिकाल की श्रेष्ठ काव्य धारा को आगे बढ़ाया।
- संगीत पर प्रभाव – उनके पदों को कई प्रसिद्ध गायकों ने गाया है, जिससे वे आज भी संगीत प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं।
मीरा बाई की प्रवृत्तियाँ
मीरा बाई की प्रवृत्तियाँ मुख्य रूप से भक्ति, प्रेम, वैराग्य, साधना और सामाजिक विरोध से जुड़ी हुई थीं। उनके जीवन और साहित्य में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ प्रमुख रूप से देखी जा सकती हैं:
1. कृष्ण भक्ति की प्रवृत्ति
मीरा बाई की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति कृष्ण भक्ति थी। वे कृष्ण को अपना आराध्य, प्रियतम और सर्वस्व मानती थीं। उनके पदों में श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम, आत्मसमर्पण और गहन भक्ति भाव प्रकट होता है। वे कृष्ण को ही अपना पति और जीवन का अंतिम लक्ष्य मानती थीं।
उदाहरण:
"मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।"
इस पंक्ति में मीरा ने अपने संपूर्ण समर्पण को व्यक्त किया है।
2. प्रेम और माधुर्य भाव की प्रवृत्ति
मीरा की भक्ति में माधुर्य भाव प्रमुख था, जिसमें वे श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में देखती हैं। उनका भक्ति मार्ग गोपियों की प्रेम भावना से प्रेरित था। उनके पदों में राधा-कृष्ण के प्रेम की झलक मिलती है।
उदाहरण:
"पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।"
इसमें वे प्रेम के उन्माद में कृष्ण के लिए नृत्य करती हुई दिखाई देती हैं।
3. वैराग्य और संन्यास की प्रवृत्ति
राजमहल में रहते हुए भी मीरा बाई सांसारिक सुख-सुविधाओं से दूर रहीं। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने पूरी तरह से वैराग्य अपना लिया और संसार को त्यागकर कृष्ण की भक्ति में लीन हो गईं।
उदाहरण:
"सांवलिया मेरा प्रेम दीवाना, मैं दीवानी सांवलिया की।"
इस पंक्ति में मीरा की वैराग्य भावना स्पष्ट रूप से झलकती है।
4. समाज विरोध और विद्रोह की प्रवृत्ति
मीरा बाई ने सामाजिक बंधनों और राजमहल की कठोर परंपराओं को नहीं स्वीकारा। उनके परिवार ने उनकी भक्ति को रोकने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन मीरा बाई ने समाज की परवाह किए बिना कृष्ण को ही अपना सर्वस्व मान लिया।
उदाहरण:
"मुझे लाग्यो रे मीठो माधुर मिलण, संतों संग बैठ हरिगुन गा।"
यहाँ मीरा समाज की परवाह न करते हुए साधु-संतों के संग रहने की इच्छा व्यक्त करती हैं।
5. लोक संस्कृति और संगीत की प्रवृत्ति
मीरा बाई की कविता लोकभाषा में रची गई थी और उनकी रचनाएँ लोकगीतों की शैली में हैं। उनके पदों में गेयता है और वे भक्ति संगीत का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं।
उदाहरण:
"पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।"
यह पद आज भी भजन के रूप में प्रसिद्ध है और संगीत प्रेमियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है।
6. निर्गुण-सगुण भक्ति का समन्वय
मीरा बाई की भक्ति प्रवृत्ति मुख्य रूप से सगुण भक्ति से जुड़ी थी, जहाँ उन्होंने श्रीकृष्ण को एक साकार प्रेमी के रूप में देखा। लेकिन उनके कई पदों में निर्गुण भक्ति के तत्व भी दिखाई देते हैं, जहाँ वे आत्मा-परमात्मा के मिलन की बात करती हैं।
उदाहरण:
"मन रे! परसौ मिलण की आस।"
इसमें आत्मा और परमात्मा के मिलन की अवधारणा दिखाई देती है।
7. आध्यात्मिक स्वतंत्रता और नारी सशक्तिकरण की प्रवृत्ति
मीरा बाई अपने समय की एक विद्रोही और स्वतंत्र सोच वाली महिला थीं। उन्होंने समाज की परंपराओं को चुनौती दी और अपने विश्वास पर अडिग रहीं। उन्होंने यह दिखाया कि नारी भी आध्यात्मिक रूप से स्वतंत्र होकर अपने आराध्य से प्रेम कर सकती है।
उदाहरण:
"रणछोड़ मेरा साँवरो, मैं बलि बलि जाऊँ रे।"
इसमें मीरा ने कृष्ण के प्रति अपनी संपूर्ण निष्ठा प्रकट की है, चाहे समाज कुछ भी कहे।
निष्कर्ष
मीरा बाई भारतीय भक्ति आंदोलन की एक अमर विभूति थीं। उनका जीवन प्रेम, त्याग और भक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। उन्होंने समाज की बाधाओं को नकारते हुए भक्ति मार्ग को अपनाया और श्रीकृष्ण में लीन हो गईं। उनके पद आज भी भक्ति रसिकों के हृदय को भावविभोर कर देते हैं। उनकी सादगीपूर्ण भाषा, गेयता और माधुर्य भाव ने उन्हें हिंदी साहित्य में अमर बना दिया। मीरा बाई का जीवन एक संदेश है कि प्रेम और भक्ति के मार्ग में कोई भी बाधा प्रेमी को रोक नहीं सकती।
यह लेख मीरा बाई के संपूर्ण जीवन और साहित्य पर एक विस्तृत दृष्टि प्रस्तुत करता है। यदि आप किसी विशेष पहलू पर और अधिक जानकारी चाहते हैं, तो बता सकते हैं।
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