Bihari laal ka jeevan parichay

बिहारी लाल: जीवन परिचय और साहित्यिक योगदान


Bihari laal ka jeevan parichay



हिंदी साहित्य के रीतिकालीन युग में अनेक प्रसिद्ध कवियों ने अपनी काव्य प्रतिभा से साहित्य को समृद्ध किया। इन्हीं में से एक प्रमुख कवि थे बिहारी लाल, जो अपनी अद्वितीय काव्य शैली और सतसई जैसी अमर कृति के लिए प्रसिद्ध हैं। बिहारी के दोहे अलंकार, व्यंजनात्मकता, और भावनात्मक गहराई के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं।

इस लेख में हम बिहारी लाल के जीवन परिचय, उनकी रचनाओं, उनके साहित्यिक योगदान, और उनकी काव्य विशेषताओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।


बिहारी लाल का जीवन परिचय

जन्म और प्रारंभिक जीवन

बिहारी लाल का जन्म सन् 1603 ईस्वी में हुआ था। उनके जन्मस्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान उन्हें ग्वालियर (मध्य प्रदेश) का निवासी मानते हैं, जबकि कुछ का मत है कि उनका जन्म बुंदेलखंड में हुआ था।

बचपन से ही बिहारी में काव्य प्रतिभा की झलक दिखाई देने लगी थी। वे संस्कृत, ब्रजभाषा और हिंदी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा पारंपरिक पद्धति से हुई और उन्होंने तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का गहन अध्ययन किया।

माता-पिता

बिहारी लाल के माता-पिता के विषय में कोई विस्तृत प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन ऐसा माना जाता है कि वे एक संभ्रांत परिवार से थे। उनके पिता धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जिससे बिहारी को भी धार्मिक और नैतिक मूल्यों की शिक्षा बचपन से ही मिली।

बिहारी लाल का विवाह

बिहारी लाल का विवाह एक धार्मिक और सुसंस्कृत परिवार में हुआ था। विवाह के बाद वे अपने ससुराल में ही रहने लगे, लेकिन काव्य के प्रति उनका अनुराग बना रहा। ऐसा कहा जाता है कि विवाह के बाद उनके जीवन में एक नया मोड़ आया और उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा को और अधिक गंभीरता से लिया।

 साहित्यिक योगदान

बिहारी लाल जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा से राजा को प्रभावित किया और दरबार में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया। कहा जाता है कि राजा जयसिंह कवि बिहारी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने बिहारी के एक दोहे से प्रेरणा लेकर अपनी पत्नी से फिर से प्रेमभाव बढ़ाया।

बिहारी अपने दोहों में नीति, श्रृंगार और भक्ति को इस कुशलता से पिरोते थे कि उनके दोहे गहरे अर्थों को प्रकट करते थे।

मृत्यु

बिहारी लाल की मृत्यु 1663 ईस्वी के आसपास मानी जाती है। उनके निधन के स्थान को लेकर मतभेद हैं, लेकिन आमतौर पर माना जाता है कि वे आम्बर (जयपुर, राजस्थान) में रहे और वहीं उनका निधन हुआ।


बिहारी लाल का साहित्य परिचय

बिहारी सतसई: एक अनमोल काव्य कृति

बिहारी लाल की सबसे प्रसिद्ध रचना "बिहारी सतसई" है। यह एक दोहों का संग्रह है, जिसमें कुल 713 दोहे संकलित हैं। यह ग्रंथ हिंदी साहित्य की अनुपम कृति मानी जाती है।

सतसई का विषय-वस्तु

"बिहारी सतसई" मुख्यतः तीन प्रमुख विषयों पर आधारित है—

  1. नीति (राजनीति और जीवन-व्यवहार)
  2. भक्ति (ईश्वर के प्रति समर्पण और श्रद्धा)
  3. श्रृंगार (नायक-नायिका भाव, प्रेम, विरह और संयोग)

बिहारी के दोहे अलंकारिक सौंदर्य, लाक्षणिकता और सूक्ष्म व्यंग्य से परिपूर्ण होते हैं। वे संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली होते हैं।


बिहारी की सतसई में 713 दोहों का संकलन है, जो श्रृंगार, नीति और भक्ति तीनों विषयों को समाहित करते हैं। उनके दोहे संक्षिप्त होते हुए भी गहरे अर्थों से भरपूर होते हैं। यहाँ कुछ प्रसिद्ध दोहे और उनके हिंदी अनुवाद दिए जा रहे हैं:


1. नीति दोहे (जीवन व्यवहार और राजनीति पर आधारित)

दोहा:
"करि करी बीती करै, बिनु कर करै न होइ।
करत करत करि जात है, करत न करत न कोइ।।"

अनुवाद:
जो व्यक्ति मेहनत करता है, वही सफल होता है। बिना प्रयास के कोई भी कार्य पूरा नहीं होता। लगातार अभ्यास करने से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।


दोहा:
"रसिकनि रस जाना नहीं, बिन देखे, बिन चखि।
तेहि जानत जनु जानिहै, परसत अस्थि को रहि।।"

अनुवाद:
प्रेम का वास्तविक आनंद वही जान सकता है, जिसने इसे अनुभव किया हो। बिना चखे कोई मिठास को नहीं समझ सकता, वैसे ही प्रेम का वास्तविक ज्ञान अनुभव से ही होता है।


2. श्रृंगार रस (प्रेम और सौंदर्य का वर्णन)

दोहा:
"कहत, नटत, रीझत, खिजत, मिलत, खिलत, लजात।
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात।।"

अनुवाद:
प्रेमी और प्रेमिका बिना कुछ बोले आँखों से ही अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हैं—कभी कहते हैं, कभी मुकर जाते हैं, कभी रीझते हैं, कभी नाराज़ होते हैं, कभी हँसते हैं और कभी शर्माते हैं।


दोहा:
"नवनीत समान मन, सब सनेह की आंच।
गरमी में गल जाइये, जियरा जाय जमांच।।"

अनुवाद:
प्रेम में मन मक्खन के समान कोमल होता है। जब प्रेम की गर्मी (भावना) आती है तो यह पिघल जाता है, और जब प्रेम ठंडा पड़ता है तो कठोर हो जाता है।


दोहा:
"लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।
लाली हीन हृदय की, मेरे बस की नाहिं।।"

अनुवाद:
मैं देखने तो किसी और के प्रेम की लाली (भावना) गई थी, लेकिन मैं स्वयं भी प्रेम में रंग गई। प्रेम में डूबे हृदय की यह विशेषता होती है कि वह सामने वाले को भी प्रेम में रंग देता है।


3. भक्ति रस (ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति)

दोहा:
"रामहि केवल प्रेम प्यारा, जान लेहु जो जान।
बिनु प्रेमु, नहिं राम के, मिलत बनत ग्यान।।"

अनुवाद:
ईश्वर को केवल प्रेम से पाया जा सकता है। ज्ञान या तर्क से ईश्वर प्राप्त नहीं होते, जब तक उनके प्रति सच्चा प्रेम न हो।


दोहा:
"नाम सुमिर मन हरषि, करि हरि चरन विचार।
बिहारी भवसागर तरन, एकै यहि आधार।।"

अनुवाद:
ईश्वर के नाम का स्मरण करके और उनके चरणों का ध्यान करके मन प्रसन्न हो जाता है। संसार रूपी सागर को पार करने का एकमात्र सहारा ईश्वर की भक्ति ही है।


बिहारी के काव्य की विशेषताएँ

  1. शब्दों की संक्षिप्तता और अर्थ की गहराई

    • बिहारी अपने दोहों में बहुत कम शब्दों में गहरे अर्थ प्रकट करने में सिद्धहस्त थे।
  2. अलंकारों की प्रधानता

    • बिहारी के दोहों में रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, उपमा, और संदेह जैसे अलंकारों का भरपूर प्रयोग मिलता है।
  3. रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

    • उनका काव्य श्रृंगार रस पर आधारित है, जिसमें संयोग और वियोग दोनों का सुंदर चित्रण किया गया है।
  4. नैतिकता और नीति परकता

    • बिहारी के दोहे केवल श्रृंगार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें नैतिकता और व्यवहारिक ज्ञान भी समाहित है।

बिहारी के कुछ प्रसिद्ध दोहे

श्रृंगार रस

"नवनीत समान मन, सब सनेह की आंच।
गरमी में गल जाइये, जियरा जाय जमांच।।"

(अर्थ: प्रेम में हृदय मक्खन की तरह होता है, जो प्रेम की गर्मी में पिघल जाता है और जाड़े में जम जाता है।)

नीति रस

"रसिकनि रस जाना नहीं, बिन देखे, बिन चखि।
तेहि जानत जनु जानिहै, परसत अस्थि को रहि।।"

(अर्थ: जो व्यक्ति प्रेम की अनुभूति नहीं करता, वह उसके रस को नहीं समझ सकता। यह उसी तरह है जैसे कोई अस्थि को छूकर उसके स्वाद का अनुमान नहीं लगा सकता।)

भक्ति रस

"करि करी बीती करै, बिनु कर करै न होइ।
करत करत करि जात है, करत न करत न कोइ।।"

(अर्थ: कोई कार्य बिना प्रयास के नहीं होता। जो प्रयास करता है, वही सफल होता है।)


बिहारी का हिंदी साहित्य में योगदान

बिहारी ने हिंदी साहित्य को अपनी सूक्ष्म काव्य प्रतिभा से समृद्ध किया। उनकी रचनाएँ आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उन्होंने ब्रज भाषा को अपनी काव्य अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और इसे एक नई ऊँचाई दी।

उनके दोहों का प्रभाव न केवल हिंदी साहित्य में बल्कि लोक जीवन में भी देखा जा सकता है। उनके नीति और प्रेम परक दोहे आज भी प्रासंगिक हैं और शिक्षा, नीति, प्रेम और भक्ति के मार्गदर्शन का कार्य करते हैं।



बिहारी की भाषा-शैली


बिहारी लाल की भाषा और शैली उनकी सतसई के दोहों में अद्भुत रूप से प्रकट होती है। उनकी भाषा सहज, संक्षिप्त, सारगर्भित और भावपूर्ण होती है। उन्होंने मुख्य रूप से ब्रज भाषा में काव्य रचना की, जो उस समय हिंदी काव्य की प्रमुख भाषा थी। उनकी भाषा में संस्कृत, अपभ्रंश और अवधि के भी कुछ शब्द देखने को मिलते हैं, जिससे उनकी कविता अत्यधिक प्रभावशाली बन जाती है।


1. बिहारी की भाषा की विशेषताएँ

(क) ब्रज भाषा का प्रयोग

  • बिहारी ने अपनी पूरी काव्य रचना ब्रज भाषा में लिखी।
  • ब्रज भाषा अपनी कोमलता, मधुरता और प्रवाह के कारण श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है।

(ख) संक्षिप्तता और सारगर्भिता

  • बिहारी के दोहे अत्यंत संक्षिप्त होते हैं, लेकिन उनमें गहरा भाव और अर्थ छिपा होता है।

  • उदाहरण के लिए, उनके दोहे में केवल दो पंक्तियों में संपूर्ण कथा या विचार व्यक्त कर दिया जाता है।

  • उदाहरण:
    "कहत, नटत, रीझत, खिजत, मिलत, खिलत, लजात।
    भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात।।"

    ➤ इस दोहे में केवल कुछ शब्दों में प्रेमी-प्रेमिका की आँखों के माध्यम से होने वाली बातचीत का सुंदर चित्रण किया गया है।

(ग) सहजता और प्रवाह

  • उनकी भाषा स्वाभाविक और प्रवाहमयी है, जिससे उनके दोहे पढ़ने और गाने में सहज लगते हैं।

(घ) अलंकारों की भरमार

  • बिहारी के दोहों में अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है, जिससे उनकी कविता कलात्मक और प्रभावशाली बन गई है।
  • प्रमुख अलंकार—
    • अनुप्रास: "लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।"
    • रूपक: "नवनीत समान मन, सब सनेह की आंच।"
    • उत्प्रेक्षा: "कहत, नटत, रीझत, खिजत..."

(ङ) लाक्षणिकता और व्यंजना

  • बिहारी के दोहे प्रत्यक्ष रूप से कुछ और कहते हैं, लेकिन उनका अर्थ कहीं गहरा होता है।
  • उदाहरण:
    "लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।"
    • यहाँ "लाली" प्रेम की भावना का प्रतीक है, जो देखने वाले को भी अपने रंग में रंग देती है।

2. बिहारी की काव्य शैली

बिहारी की काव्य-शैली रीति मुक्तक काव्य शैली है, जिसमें उन्होंने अलग-अलग विषयों पर स्वतंत्र रूप से दोहे रचे।

(क) रीति मुक्तक शैली

  • बिहारी का काव्य मुक्तक शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • मुक्तक शैली में प्रत्येक दोहा स्वतंत्र रूप से एक पूर्ण विचार व्यक्त करता है।

(ख) चित्रात्मक शैली

  • बिहारी की शैली बहुत ही चित्रात्मक और दृश्यात्मक है, जिससे उनके दोहों में एक स्पष्ट चित्र उभरता है।
  • उदाहरण:
    "बिंदी-सी उन नैन की, बातन्हु पट पर छाइ।
    तिय को आंचल आन कर, कहौं कहाँ लौं छाइ।।"
    • यहाँ आँखों की सुंदरता और उनकी छवि को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया गया है।

(ग) श्रृंगार प्रधान शैली

  • बिहारी की शैली में श्रृंगार रस की प्रधानता है।
  • उन्होंने संयोग और वियोग दोनों का सुंदर चित्रण किया है।

(घ) नीति और भक्ति का संयोजन

  • बिहारी के काव्य में केवल श्रृंगार ही नहीं, बल्कि नीति और भक्ति का भी अद्भुत समावेश है।
  • नीति दोहा:
    "करि करी बीती करै, बिनु कर करै न होइ।
    करत करत करि जात है, करत न करत न कोइ।।"

निष्कर्ष

बिहारी लाल हिंदी साहित्य के एक अमर कवि थे। उनकी सतसई न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें जीवन की वास्तविकताओं का भी सुंदर चित्रण किया गया है। उनकी काव्य शैली, भाषा, अलंकारों की सहजता और गूढ़ता उन्हें अन्य कवियों से अलग बनाती है।

आज भी बिहारी के दोहे साहित्यिक अध्ययन, काव्य प्रतियोगिताओं और हिंदी प्रेमियों के हृदय में विशेष स्थान रखते हैं। उनकी काव्य प्रतिभा सदैव हिंदी साहित्य को गौरवान्वित करती रहेगी।

बिहारी का योगदान हिंदी साहित्य को चिरस्थायी ऊंचाइयों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण है और उनकी रचनाएँ आज भी हिंदी प्रेमियों के लिए अनमोल धरोहर बनी हुई हैं।




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